नीम की दातुन से एक नहीं बल्कि अनेकों लाभ है । प्रथम तो दाँत की सफाई होती है , दूसरा लाभ पायरिया जैसे रोगों में नीम की दातुन अति उत्तर औशधि है । नीम की दातुन से तीसरा अति प्रभावकारी लाभ यह है कि दातुन करते समय जो दातुन का सर पेट में चला जाता है तो आंत में होने वाली कीड़ियां (पिन कृमि) मर जाते हैं । उन कीड़ियों के कारण पेट में अनेक प्रकार के विकार उत्पन्न होते है जैसे-गैस की समस्या , अपच आदि । अतः नीम की दातुन बहुत ही लाभकारी हो ।
षरीर पर तेल मालिष करने से थकावट, कमजोरी और वात जनित रोगों से मुक्ति मिलती है । सिर में तेल मालिष तथा पैरों की तली में तेल मालिष करना विषेश रूप से फायदेमंद है । षरीर में तेल मलने से त्वचा में कोमलता आती है । खुष्की नश्ट हो जाती है । दृश्टि तेज होती है ।
प्रभु की कृपा से जो कुछ भी अन्न-जल हमें प्राप्त होता है उसे प्रभु का प्रसाद मानकर प्रभु को अर्पित करना , कृतज्ञता प्रकट करने के साथ मानवीय सद्गुण भी है । भगवान को भोग लगाकर ग्रहण कियाजाने वाला अन्न दिव्य माना जाता है । भगवान को प्रसाद चढ़ाना आस्तिक होने के गुण को परिलक्षित करता है ।
वेदपुराण और धार्मिक ग्रन्थों के मतानुसार , पृथ्वीलोक कर्मभूमि है । इस कर्म भूमि पर मानव जैसा कर्म करेगा (चाहे वह पुण्य जन्य कर्म हो या पाप जन्य ) वैसा ही फल उसे मृत्यु के बाद प्राप्त होगा । अच्छा कर्म किये रहेगा तो अच्छा फल प्राप्त होगा , बुरा कर्म करेगा तो मृत्यु के बाद जीव (प्राण)की दुर्गति होगी । यह सब धर्म-ग्रन्थों की लिखी बातें है जिस पर कुछ लोग तो विष्वास करते है और कुछ लोग विष्वास नहीं करते । वे प्रमाण माँगते है कि मरने के बाद कैसे स्वर्ग और नर्क की प्राप्ति होती है प्रमाणित करके दिखाओं? उनका कथन किसी हद तक सही भी है कि जिन चीजों का हमें ज्ञान ही नहीं है उन पर कैसे विष्वास कर लें ! प्राचीनकाल से लोग यह कहते आ रहे हैं कि आँखों देखी बात को ही सत्य मानना चाहिए । लेकिन कलियुग में स्वयं उसने अन्य युगों से कहा है कि मेरे युग में अन्य युगों की तरह अगले जन्म का कोई चक्कर ही नहीं रहेगा । जो जैसा करेगा उसका तुरन्त फल उसे प्राप्त होगा । स्वर्ग और नर्क मरने के बाद कैसाद्य जो फल होगा तुरन्त मिलेगा । परिश्रम करोगे तो धनवान बनोगे । संतों की संगत करोगे तो सम्मान प्राप्त करोगे । किसी का धन छीनोगे तो कोई तुम्हारे घर में डाका डाल देगा , चोरी करके तुम्हारा असबाब उठा ले जायेगा । किसी का कत्ल करोगे तो उसके भाई -बन्धु तुम्हें या तुम्हारे परिवार वालों को मार डालेगे । और ऐसा ही हो रहा है । प्रमाण की कोई आवष्यकता नहीं , कलियुग का निर्णय सभी लोग अपनी आँखों से देख रहे है । कोई अल्पायु में मर जा रहा है तो कोई अल्पायु में मर जा रहा है तो कोई रोग ग्रसित होकर । वेष्यागमन करने वाले अनेक रोगों से ग्रसित होकर एड़ियाँ घिस-घिसकर मरते है । ऐसे -ऐसे रोग उत्पन्न हो रहे है जिससे ग्रस्त इंसान प्रतिदिन मौत की कामना करता है लेकिन मौत नही आती । ये सभी नर्क नही ंतो और क्या है -और जो हर प्रकार का सम्पन्न है वह स्वर्ग समान सुख का उपभोग कर रहा है । जिस स्वर्ग और नर्क की लोग कल्पना करते हैवह यहीं पृथ्वी पर ही है । मरने के बाद पंचतत्वों से बना षरीर पुनः पंचतत्वों में विलीन हो जाता है, अर्थात षरीर का जो भाग जिससे बना था उसी में जाकर मिल गया है ।
विवाहित स्त्रियों को अपनी मांग में सिंदूर भरने का विधान है । फैषन के कारण सिंदूर का चलन कम होता जा रहा है,पर वास्तव में लाल सिंदूर का अपना षारीरिक प्रभाव होता है । वह स्त्री की (वासना) कामना पर नियंत्रण रखता है और उसके स्वभाव में उत्तेजना नहीं आने देता है । उसको रक्तचाप की बीमारी से भी बचाता है । इसी प्रकार का कुछ-न-कुछ प्रभाव उसके आभूशण और श्रृगांर के द्वारा भी होता है ।
हमारे संस्कारों में गाय का बड़ा महत्व है । उसका मल -गोबर हमारे संस्कारों में घर-आंगन लीपने के काम में बतलाया गया है । विज्ञान मानता है कि ब्रह्माण्ड में अहर्निष उल्कापात हो रहा है ।रेडियोधर्मी धूल प्रतिदिन टनों की मात्रा में गिर रही है और बड़ी हानिकारक है । गोबर के परीक्षण से पता चला है कि उसमें रेडियोधर्मी धूल के अवगुणों को सोखने की अद्भुत क्षमता है । इस कारण गोबर के लिये -पुते घरों में निवास करने वाले प्राणी निरोग रहते है । जले-कटे पर ताजे गोबर का लेप पीड़ानाषक है और अनावष्यक रक्त प्रवाह को रोकता है ।
सिंधु षब्द से हिन्दू षब्द की उत्पत्ति हुई थी । सिंधु एक नदी का नाम है जो मानसरोवर से निकलकर कष्मीर से गुजरती हुई अरब सागर में गिरती है । इसी नदी में पांच और नदी झेलम , चिनाव , रावी , व्यास और समलज मिलती है । इन्हीं पंचनदों के कारण पंजाब षब्द विकसित हुआ था । इन पंचनदों ने सभ्यता को उतना प्रभावित नहीं किया जितना अकेले सिंधु ने , इसी सिंधु से सिंधु , सेंधव ,हिंद, हिंदू , इंद , इंदु , इंडु , इण्डिया आदि षब्द बने है और विद्वानों का कहना है कि हिंदू षब्द से ही ‘सिंधु’ षब्द का निर्माण हुआ । इस प्रकार सिंधु षब्द के अनेक रूप विद्वानों ने गढ़े , किसी ने सिंधु से हिंदू का उद्धव माना तो किसी ने हिंदू से सिंधु का लेकिन यह दोनों एक ही है ।
जैसे अग्नि होने का प्रमाण धुआं है , क्योंकि बिना अग्नि के धुआं उठना असंभव है । यह अनुमान प्रमाण है । प्रत्यक्ष प्रमाण के अन्तर्गत वे वस्तुएं आती है जिन्हे हमारी आंखे देखती हैं अथवा अनुभव करती है । जैसे सुगन्ध है , षीतलता है-ये सभी प्रत्यक्ष प्रमाण है ं तथा आप्त प्रमाण ऋशि-मुनियों , संतों विद्वानों द्वारा कहे गये वचनों को कहते है जिनको हम पालन करते है । इस प्रकार सिद्ध हुआ अनुमान प्रमाण ,प्रत्यक्ष प्रमाण और आप्त प्रमाण होते है ।
लक्ष्मी को चचंला कहने का उद्देष्य यह है कि वह कहीं एक स्थान पर स्थिर नहीं रहतीं । लक्ष्मी अगर एक स्थान पर स्थिर हो जाए तो मानव जीवन से पुरूशार्थ ही समाप्त हो जाये । लक्ष्मी के चंचल होने के कारण ही जीवन में गति है, परिश्रम है, भाग्य पर विष्वास है ।
सभी आश्रमों में गृहस्थ आश्रम सबसे बड़ा और बहुजन हिताय आश्रम है , कारण सब आश्रमों के लोगों को अन्न गृहस्थ आश्रम ही देता है और कोई नहीं । गृहस्थ के बल पर ही यह समाज चलता है । सब लोगों की उन्नति का भाव गृहस्थी के हृदय में रहता है । सब की उन्नति के लिए वह प्रयत्न करता है । इसीलिए गृहस्थ आश्रम सबसे महत्वपूर्ण है । हमें काम करने की कला सीखनी चाहिए , एक साथ काम करने की कला सीखनी चाहिए । ऋशि- मुनियों ने सदैव बल देकर कहा है कि सबसे पहले अटूट श्रद्धा रखो और तब ईष्वर एवं अन्य मानवों पर । ऐसी श्रद्धा ही महान् कार्य करने की योग्यता प्रदान करेगी । ऐसे गृहस्थ होने होने की आज आवष्यकता है । आध्यात्मिक दिव्यता को अभिव्यक्त करने का नाम ही धर्म है । छोटा बच्चा जब जन्म लेता है , तब सात या आठ पाउण्ड का रहता है । आहार षरीर में जाने के पष्चात उसका भारत बढ़ता है । यह है , षारीरिक विकास । ऐसा ही मन का विकास होता है । उसी तरह धर्म में भी है । प्रतिदिन मन्दिर गये और आदर्ष एवं आचरण में पहले जैसे स्वार्थी रह गये तो वह धर्म है ही नही । आपको जीवन के इन मूल्यों जैसे प्रेम , करूण , सेवा की धारणा आदि के प्रति जागरूक बनना है , जो आध्यात्मिक विकास का चिट्ठ है । इसीलिए ऋशियों ने धर्म की परिभाशा देते हुए कहा है कि धर्म तो मनुश्य के भीतर पहले से विद्यमान दिव्यता को अभिव्यक्त करना ही है । व्यक्ति को केवल धार्मिक ही नही बल्कि आध्यात्मिक भी होना चाहिए । धार्मिक बनना बहुत सरल है ।ललाट पर चंदन का टीका लगा लिया और आप हिन्दू बन गये । इसलिए धार्मिक बनना सरल है , परन्तु अपेक्षित यह है कि हम आध्यात्मिक बनें ,न कि मात्र धार्मिक । आध्यात्मिकता की यह धारणा हमें उपनिशदों से प्राप्त होती है , क्योंकि उपनिशद् वर्णन करते है कि मानव का रूप मूलतः आधात्मिक ही है । गृहस्थाश्रम श्रेश्ठ आश्रम है । ब्रह्मचर्य , वानप्रस्थ और संन्यास तीनों पोशित होते है ं। एक ब्रह्मचारी उपार्जन नहीं करता , उसी प्रकार वानप्रस्थी और संन्यासी भी । केवल एक गृहस्थ ही कर्म करता है एवं अर्जन करता है । इस एक मात्र समुदाय द्वारा ही अन्य तीनों अन्न पाते है , इसकी यह महानता है ।