यह एक परम्परा है कि जब वधू गृह-प्रवेष करती है तब घर की देहरी पर अन्न का ढ़ेर रखा जाता है । गृह-प्रवेष करती वधू उस ढेर को लात मारकर घर में प्रवेष करती है । पुराने समय में अन्न को घर-वैभव माना जाता था । देहरी तक पहुंचे उस धान्य को वधू लात मारकर भीतर धकेलती थी, मानो वह वैभव को कहती हो , हे वैभव! इस घर के बाहर कभी नहीं जाना ।
देहरी घर के सम्मान की रक्षक है । स्त्री घर के बाहर पैर रखे, देहरी लांघे तब उस घर की मूक साक्षी देहरी उससे उसके अंतर मन के द्वारा पूछती है , तू यह देहरी लांघती है, लेकिन इससे घर की मर्यादा का उल्लंघन कभी नहीं करना । यह देहरी एक बुजुर्ग का काम करती है गलत काम करने के लिए उठे हुए कदम को वह रोकती है, देहरी अर्थात लक्ष्मन-रेख । जिस प्रकार देहरी घर के स्वामी की जांच करती है उसी प्रकार बाहर से आने वाले आगुन्तक की भी सूचना देती है ।
देहरी अर्थात हमारे भवन के द्वार की देहलीज , जो हमारे सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में महत्वपूर्ण स्थान रखती है । प्राचीन समय में षायद ही कोई भवन बिना देहरी का रहा होगा । षायद ही किसी घर की देहरी अपूज्य रहती होगी । वे नित्य देहरी को पूजते थे , देहरी के आस-पास घी के दीपक लगाया करते थे-और यह सब निरर्थक नहीं था, देहरी के पूजन के पीछे एक सांस्कृतिक भाव छिपा हुआ है ।
PRAVEEN CHOPRA