धर्म को दो रूपों में देखा जा सकता है । पहला जो इसके प्रारम्भिक तत्वों को स्पश्ट करता है और दूसरा वह जो समय देष की परिस्थितियों के अनुसार आचार संहिता निष्चित करता है । सर्वविदित है , प्राचीन काल में पुरोहित ज्ञानार्जित कर कल्याण हेतु समाज में उसका वितरण करना अपना धर्म समझते थे ।उन्होंने ही अध्यात्मिक विकास कर ,इस देष की सभ्यता को उसके उत्कर्श तक पहुंचाया था । समाज को जीवन में फलना-फूलना या फिर परलोक में स्वर्ग-प्राप्ति जैसी इच्छाओं की पूर्ति कर पाना , मनुश्य उन्हीं द्वारा कराये गये युक्तियों से संभव मानता था । कठिन तप द्वारा ऋशियों ने ज्ञान प्राप्त किया कि मनुश्य अज्ञानता एवं अपने स्वार्थी स्वभाव के कारण ही दुःखी रहता है । इसके निवारण हेतु उन्होंने ईष्वरत्व एवं आत्मा , जो कि हिन्दू सभ्यता की प्रत्येक दार्षनिक षैलियों का चिरकाल से आधार थे , मान लिया । पुरूशार्थ ही मनुश्य को उसके कश्टों से मुक्ति दिला सकता है ,बिना भेदभाव के , इसका उपदेष दिया । मोह को समाप्त कर दो और निश्काम भाव से कर्म करने जैसी अन्य प्रेरणाओं को माना ,उन्होने उसका भरपूर प्रचार किया । यही धर्म का मूल तत्व है । ‘सत्यम् षिवम् सुंदरम्’अर्थात वह सत्य सुंदर है जो कलयाणकारी हो,इस कथन का कल्याणकारी पक्ष ही धर्म का मूल तत्व है । जितने भी आज तक धर्म स्थापित हुए हैं , उनके सिद्धांत ,धर्म का वह रूप हैं जिनका पालन करना समय की आवष्यकता थी । धर्म ,अर्थ, काम व मोक्ष ,के लक्ष्य , क्रमानुसार ही सिद्ध होते है । सामान्य व्यवहार ही धर्मयुक्त जीवन कहलाता है । सांसारिक जीवन व्यतीत कर , पारिवारिक एवं सामाजिक दायित्वोें को अपनी पूरी निश्ठा से निभाता हुआ व्यक्ति ही तपस्वी कहलाने योग्य है । अनुत्पादक तप , मानव जाति का कल्याण कदाचित नहीं कर सकता है ।
ब्हुजनहिताय हेतु ही ऋशियों ने ज्ञान-विज्ञान की खोज कर जप-तप के अनुभवों द्वारा सूत्र व मंत्रों की रचना की थी । वेद अगर सफल जीवन जीने हेतु मार्गदर्षन करते हैं तो उपनिशद् , कत्र्तव्यपालन की सीख देते हैं । श्रीकृश्ण के कथनानुसार , ‘‘जब-जब धर्म की हानि होगी मैं जनोद्धार हेतु अवतरित होऊंगा । ’’
धर्म की इस सहज वृत्ति को जब-जब मत सम्प्रदाय जैसी ग्रंथियों में गूंधा गया , तब-त बवह उलझ गया । जिन कारणों से उसकी स्थापना हुई थी , उसके बजाय उसकी विद्यमानता पर जब अत्यधिक महत्व दिया जाता है तो वह कर्म की धारा से स्वतः कट जाता है ।
सर्वजनहिताय , सर्वजनसुखाय के नाम पर कभी हमने हिंसा की तो कभी कायर की तरह सिर झुका दिया । इसी कायरता की भत्र्सना करने श्रीकृश्ण को अवतरित होना पड़ा । धर्म कोरे चिंतन या विवाद का नहीं , व्यवहार की चीज है । यह , तो अपने को दूसरों के लिए मिटा देने की षिक्षा देता है । अब समय है जब उसकी मूल भावना को पहचान जाये । परिस्थितियों की आवष्यकतानुसार , उसे फिर नये रूप में संवारा जाये तभी मनुश्य स्वयं सुखी रहेगा तथा अन्य को भी रख सकेगा । यही धर्म का वास्तविक स्वरूप है ।
PRAVEEN CHOPRA