धर्म के लक्षण बताते हुए याज्ञवल्क्य जी ने कहा है ेे- नमसतेयं षौचमिद्रिंयनिग्रहः । दानं दमो दया क्षांतिः सर्वेषं धर्मसाधनम् । ।यानि अहिंसा ,सत्य , अस्तेय,षौच, इंद्रियनिग्रह ,दान, दम,दया व क्षमा-धर्म के लक्षण है । मनुजी ने भी धर्म के लक्षण इसी प्रकार कहे हैं- धूतिः क्षमा दसोस्तेयं षौचमिद्रिंनिग्रहः। धीर्विधा सत्यक्रोधो दषंक धर्मलक्षणम् । । धूति (धैर्य, मानसिक षांति ),क्षमा (सहिश्णुता),दम (इंद्रिय-दमन,सब प्रकार का संयम ) ,अस्तेय (चोर वृति से रहित होना ), षौच (आंतरिक व ब्राह्य पवित्रता),इंद्रिय निग्रह (बहिर्मुखी प्रवृति को अंतर्मुखी करके विशयों से हटाना ),धी (धर्म विशयक बुद्धि),विद्या (ब्रह्म विद्या ),सत्या (यथावस्तु), अक्रोध (गुस्सा न होना )-धर्म के ये दस लक्षण है ।
जीवन में अध्यात्म क्यों आवष्यक है ?
साधारणतया यह सिद्धान्त है कि किसी भी समाज में सर्वस्वीकृत मान्यताएं ही सामाजिक नैतिकता का आधार होती हैऔर आध्यात्मिकता का आधार व्यक्ति के अपने आध्यात्मिक मूल्य होते है । सतही तौर पर भले ही यह कथन सही लगता हो, लेकिन इसे व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो सामने आता है कि आध्यात्मिक मूल्य भी अंततः परम्पराओं का ही विस्तार होते हैं । कोई व्यक्ति चाहे िकवह अपनी मान्यताओं को व्यवहार में उतारने के लिए सामाजिकता का उल्लंघन करते हुए आध्यात्मिक सिद्धांतों का वरण कर सकता है, तो स्वयं को धोखा देने की तरह होगा । बेषक हमारी धार्मिक व्याख्याएं जीवन मूल्यों को स्पश्ट करने में सहयोगी सिद्ध हो सकती है । कोई व्यक्ति अपनी बौद्धिक चेतना से विभिन्न धर्मों की अवधारणाओं की तथाकथित सामाजिक मान्यताओं पर ही प्रष्न चिन्ह लगा दे । मानव जीवन के लिए आवष्यक कुछ षाष्वत मूल्यों को छोड़कर अन्य मूल्य और परम्परा समय के साथ अपनी अर्थवत्ता खो देते हैं या निश्प्राण हो जाते है । समाज स्वयं में कुछ नहीं ,वह तो व्यक्तियों का ही समूह है ,जिसमें आचार -व्यवहार ,परम्परा व रीति -रिवाज ,नीति-नियम से बधां व्यक्ति दूसरे की सुख -सुविधा का ध्यान रखते हुए अपना कार्य करता है । कोई अपना कार्य इमानदारी से करते हुए समाज को आध्यात्मिक स्पर्ष प्रदान करना सामाजिकता के विस्तार की ही भूमिका निभाता है ।
PRAVEEN CHOPRA