मृत्यु के भय से मानव अनादि काल से एक ऐसे अमृत की खोज में भटक रहा है जो उसे अमरत्व प्रदान करे । धर्म ,अध्यात्म ,संस्कृति ,साहित्य ,योग ,उपासना,तीर्थाटन एवं समस्त बाहरी एवं भीतरी साधनाएं इसी खोज का परिणाम है । हरिद्वार , प्रयाग ,उज्जैन और नासिक -यह चार स्थल है जहां सद्भावना कुभ युगों पूर्व प्रकट हुआ था । आज भी जीवन का जो विराट रूप इन चारों स्थानों पर कुंभ महापर्व के अवसर पर दिखाई देता है , वह इस अन्यत्र दुलर्भ है । पौराणिक समुद्र मंथन की कथा से जुड़ा कुंभ महापर्व है ।
ऐसी मान्यता है जब भी गुरू वृशभ पर हो और चन्द्र मकर राषि पर हो ,अमावस्या हो इस अवसर पर कुंभ पर्व मनाया जाता है । इसी प्रकार सूर्य मेश राषि पर और गुरू (बृहस्पति)कुंभ राषि पर हो तो उस समय हरिद्वार उत्तरांचल में कुभ का आयोजन होता है । जब सूर्य और चन्द्र कर्क राषि पर हो और गुरू (बृहस्पति) सिंह राषि पर बैठे हों तो नासिक महाराश्ट्र में कुंभ होता है । इसी प्रकार जिस समय गुरू (बृहस्पति) वृष्चिक राषि पर और सूर्य तुला राषि पर स्थित हो तो उज्जैन ( म0 प्र0) में कुंभ होता है ।
पौराणिक कथा के अनुसार ,देव और दानवों में जब अमृत कलष को लेकर छीना-झपटी होने लगी ,उस समय जहां-जहां अमृत की बूदें गिरीं वहां -वहां कुंभ होता है ।
प्राचीन काल से चले आ रहे इस कुंभ पर्वाें में देष के लाखों श्रद्धालु नर -नारी सोत्साह भाग लेते रहे है । भावनात्मक लगाव ,धार्मिक सौहार्द, सांस्कृतिक सद्भाव की दृश्टि से भी कुंभ पर्व का महत्व है । कुंभ पर्व अनेकता में एकता के दर्षन कराता है । देष के विभिन्न प्रांतों से श्रद्धालु लोग आध्यात्मिक उन्नति के लिए यहां एकत्र होते है ।
महाकाल की नगरी उज्जैन ( म0 प्र0) निवासी सुप्रसिद्ध कवि डाॅ0 षिव मंगल सिंह ‘सुमन’ एक स्थान पर लिखते हैं-‘‘मैं षिप्रा-सा ही तरल-सरल बहता हंू, मै कालिदास की षेश कथा कहता हंू ,मुझको न मौत भी भय दिखला सकती है ,मै महाकाल की नगरी में रहता हंू । ’’
प्रिय पाठक! स्मरण रखें धार्मिक साहित्य में अयोध्या, हरिद्वार ,मथुरा ,काषी ,कांची ,द्वारिका की ही तरह उज्जैन का भी उल्लेख ही बनता है ।
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