सभी आश्रमों में गृहस्थ आश्रम सबसे बड़ा और बहुजन हिताय आश्रम है , कारण सब आश्रमों के लोगों को अन्न गृहस्थ आश्रम ही देता है और कोई नहीं । गृहस्थ के बल पर ही यह समाज चलता है । सब लोगों की उन्नति का भाव गृहस्थी के हृदय में रहता है । सब की उन्नति के लिए वह प्रयत्न करता है । इसीलिए गृहस्थ आश्रम सबसे महत्वपूर्ण है । हमें काम करने की कला सीखनी चाहिए , एक साथ काम करने की कला सीखनी चाहिए । ऋशि- मुनियों ने सदैव बल देकर कहा है कि सबसे पहले अटूट श्रद्धा रखो और तब ईष्वर एवं अन्य मानवों पर । ऐसी श्रद्धा ही महान् कार्य करने की योग्यता प्रदान करेगी । ऐसे गृहस्थ होने होने की आज आवष्यकता है ।
आध्यात्मिक दिव्यता को अभिव्यक्त करने का नाम ही धर्म है । छोटा बच्चा जब जन्म लेता है , तब सात या आठ पाउण्ड का रहता है । आहार षरीर में जाने के पष्चात उसका भारत बढ़ता है । यह है , षारीरिक विकास । ऐसा ही मन का विकास होता है । उसी तरह धर्म में भी है । प्रतिदिन मन्दिर गये और आदर्ष एवं आचरण में पहले जैसे स्वार्थी रह गये तो वह धर्म है ही नही । आपको जीवन के इन मूल्यों जैसे प्रेम , करूण , सेवा की धारणा आदि के प्रति जागरूक बनना है , जो आध्यात्मिक विकास का चिट्ठ है । इसीलिए ऋशियों ने धर्म की परिभाशा देते हुए कहा है कि धर्म तो मनुश्य के भीतर पहले से विद्यमान दिव्यता को अभिव्यक्त करना ही है । व्यक्ति को केवल धार्मिक ही नही बल्कि आध्यात्मिक भी होना चाहिए । धार्मिक बनना बहुत सरल है ।ललाट पर चंदन का टीका लगा लिया और आप हिन्दू बन गये । इसलिए धार्मिक बनना सरल है , परन्तु अपेक्षित यह है कि हम आध्यात्मिक बनें ,न कि मात्र धार्मिक । आध्यात्मिकता की यह धारणा हमें उपनिशदों से प्राप्त होती है , क्योंकि उपनिशद् वर्णन करते है कि मानव का रूप मूलतः आधात्मिक ही है ।
गृहस्थाश्रम श्रेश्ठ आश्रम है । ब्रह्मचर्य , वानप्रस्थ और संन्यास तीनों पोशित होते है ं। एक ब्रह्मचारी उपार्जन नहीं करता , उसी प्रकार वानप्रस्थी और संन्यासी भी । केवल एक गृहस्थ ही कर्म करता है एवं अर्जन करता है । इस एक मात्र समुदाय द्वारा ही अन्य तीनों अन्न पाते है , इसकी यह महानता है ।
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