गीता के 18 अध्यायों 700 श्लोकों में छिपा जीवन का ज्ञान है
गीता मनुष्य को कर्म का महत्व समझाती है। गीता में श्रेष्ठ मानव जीवन का सार बताया गया है। इसमें 18 ऐसे अध्याय हैं जिनमें आपके जीवन से जुड़े हर सवाल का जवाब व आपकी हर समस्या का हल मिल सकता है।
पहला अध्याय इसमें 46 श्लोकों द्वारा अर्जुन की मनःस्थिति का वर्णन किया गया है। अर्जुन अपने सगे-संबंधियों से युद्ध करने से डरते हैं भगवान कृष्ण उन्हें समझाते हैं दूसरा अध्याय इसमें 72 श्लोक हैं। जिसमें श्रीकृष्ण, अर्जुन को कर्मयोग, योग और आत्म का ज्ञान देते हैं। यह अध्याय वास्तव में पूरी गीता का सारांश है।
तीसरा अध्याय, इसमें 43 श्लोक हैं। इसमें श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि परिणाम की चिंता किए बिना हमें हमारा कर्म करते रहना चाहिए। चौथा अध्याय जिसमें 42 श्लोक हैं। इसमें श्रीकृष्ण, अर्जुन को बताते हैं संरक्षण के लिए गुरु का अत्यधिक महत्त्व होता है।
पांचवां अध्याय जिसमें 29 श्लोक हैं। इसमें अर्जुन, श्रीकृष्ण से कहते है कर्म योग अभिनय के लिए बेहतर है।
छठा अध्याय जिसमें 47 श्लोक हैं। इसमें श्रीकृष्ण, बताते है कि किस प्रकार मन की दुविधा को दूर कर महारथ प्राप्त किया जा सकता हैं।
सातवां अध्याय जिसमें 30 श्लोक हैं। इसमें श्रीकृष्ण निरपेक्ष वास्तविकता और उसके भ्रामक ऊर्जा "माया" के बारे में अर्जुन को बताते हैं।
आठवां अध्याय जिसमें 28 श्लोक हैं। गीता के इस पाठ में स्वर्ग और नरक का सिद्धांत शामिल है।
नौवां अध्याय जिसमें 34 श्लोक हैं। इसे श्रीकृष्ण की आंतरिक ऊर्जा सृष्टि को व्याप्त बनाता है, उसका सृजन करता है
दसवां अध्याय जिसमें 42 श्लोक हैं। इसमें श्रीकृष्ण अर्जुन को यह बताते हैं कि किस प्रकार सभी तत्त्वों और आध्यात्मिक अस्तित्व के अंत का कारण बनते हैं।
ग्यारहवां अध्याय जिसमें 55 श्लोक है। इस अध्याय में अर्जुन के निवेदन पर श्रीकृष्ण अपना विश्वरुप धारण करते हैं।
बारहवां अध्याय जिसमें 20 श्लोक हैं। इस अध्याय में कृष्ण भगवान भक्ति के मार्ग की महिमा अर्जुन को बताते हैं।
तेरहवां अध्याय इसमें 35 श्लोक हैं। इसमें श्रीकृष्ण अर्जुन को 'क्षेत्र' और 'क्षेत्रज्ञ' के ज्ञान के बारे में तथा सत्त्व, रज और तम गुणों द्वारा अच्छी योनि में जन्म लेने का उपाय बताते हैं।
चौदहवां अध्याय इसमें 27 श्लोक हैं। इसमें श्रीकृष्ण सत्त्व, रज और तम गुणों का वर्णन करते हैं। इन गुणों को पाने का उपाय बताया गया है।
पंद्रहवां अध्याय, इसमें 20 श्लोक हैं। इसमें श्रीकृष्ण कहते हैं कि दैवी प्रकृति वाले ज्ञानी पुरुष सर्व प्रकार से मेरा भजन करते हैं तथा आसुरी प्रकृति वाला अज्ञानी पुरुष मेरा उपहास करते हैं।
सोलहवां अध्याय इसमें 24 श्लोक हैं। इसमें श्रीकृष्ण स्वाभाविक रीति से ही दैवी प्रकृति वाले ज्ञानी पुरुष तथा आसुरी प्रकृति वाले अज्ञानी पुरुष के लक्षण के बारे में बताते हैं।
सत्रहवां अध्याय- इसमें 28 श्लोक हैं। इसमें श्रीकृष्ण अर्जुन को यह बताते हैं कि जो शास्त्र विधि का ज्ञान न होने से तथा अन्य कारणों से शास्त्र विधि छोड़ने पर, उनकी स्थिति क्या होती है।
अठारहवां अध्याय इसमें 78 श्लोक हैं। यह अध्याय पिछले सभी अध्यायों का सारांश है।
PRAVEEN CHOPRA