गर्भाधान । गार्हस्थ्य जीवन का प्रमुख उद्देश्य श्रेष्ठ सन्तानोत्पत्ति है। उत्तम संतति की इच्छा रखनेवाले माता-पिता को गर्भाधान से पूर्व अपने तन और मन की पवित्रता के लिये यह संस्कार करना चाहिए।
पुंसवन पुंसवन संस्कार का प्रयोजन स्वस्थ एवं उत्तम संतति को जन्म देना है। विशेष तिथि एवं ग्रहों की गणना के आधार पर ही गर्भधान करना उचित माना गया है।
सीमन्तोन्नयन । गर्भपात रोकने के साथ-साथ गर्भस्थ शिशु एवं उसकी माता की रक्षा करना भी इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है। इस संस्कार के माध्यम से गर्भिणी स्त्री का मन प्रसन्न रखने के लिये सौभाग्यवती स्त्रियां गर्भवती की मांग भरती हैं।
जातकर्म दो बूंद घी तथा छह बूंद शहद का सम्मिश्रण अभिमंत्रित कर चटाने के बाद पिता यज्ञ करता है तथा नौ मन्त्रों का विशेष रूप से उच्चारण के बाद बालक के बुद्धिमान, बलवान, स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने की प्रार्थना करता है। इसके बाद माता बालक को स्तनपान कराती है।
नामकरण यह संस्कार को शुभ नक्षत्र अथवा शुभ दिन में करना उचित मानते हैं। ने नाम का प्रभाव इसलिये भी अधिक बताया है क्योंकि यह व्यक्तित्व के विकास में सहायक होता है। तभी तो यह कहा गया है राम से बड़ा राम का नाम
निष्क्रमण इस संस्कार में शिशु को सूर्य तथा चन्द्रमा की ज्योति दिखाने का विधान है। भगवान भास्कर के तेज तथा चन्द्रमा की शीतलता से शिशु को अवगत कराना ही इसका उद्देश्य है। शिशु समाज के सम्पर्क में आकर सामाजिक परिस्थितियों से अवगत हो।
अन्नप्राशन शिशु जो अब तक पेय पदार्थो विशेषकर दूध पर आधारित था अब अन्न जिसे शास्त्रों में प्राण कहा गया है उसको ग्रहण कर शारीरिक व मानसिक रूप से अपने को बलवान व प्रबुद्ध बनाए। शास्त्रों में खीर को अमृत के समान उत्तम माना गया है।
चूड़ाकर्म मुंडन तीसरे या पांचवें वर्ष में इस संस्कार को करने का विधान बताया है। जन्म के समय उत्पन्न अपवित्र बालों को हटाकर बालक को प्रखर बनाना हैमुंडन संस्कार से इन दोषों का सफाया होता है। ज्योतिष
विद्यारंभ अन्नप्राशन के बाद ही शिशु बोलना शुरू करता है। इसलिये अन्नप्राशन के बाद ही विद्यारम्भ संस्कार उपयुक्त लगता है। विद्या वही है जो मुक्ति दिला सके। विद्या ही मनुष्य की आत्मिक उन्नति का साधन है।
कर्णवेध । प्रकृति प्रदत्त इस शरीर के सारे अंग महत्वपूर्ण हैं। कान हमारे श्रवण द्वार हैं। कर्ण वेधन से व्याधियां दूर होती हैं तथा श्रवण शक्ति भी बढ़ती है। यज्ञोपवीत के पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है
यज्ञोपवीत इस संस्कार के माध्यम से वेदमाता गायत्री को आत्मसात करने का प्रावधान दिया है। आधुनिक युग में भी गायत्री मंत्र पर विशेष शोध हो चुका है। गायत्री सर्वाधिक शक्तिशाली मंत्र है। । यज्ञोपवीत से ही बालक को ब्रह्मचर्य की दीक्षा दी जाती थी
वेदारंभ वेद का अर्थ होता है ज्ञान और वेदारम्भ के माध्यम से बालक अब ज्ञान को अपने अन्दर समाविष्ट करना शुरू करे यही अभिप्राय है इस संस्कार का। शास्त्रों में ज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई प्रकाश नहीं समझा गया हैइस संस्कार को जन्म से 5वे या 7 वे वर्ष में किया जाता है
केशांत । वेद-पुराणों एवं विभिन्न विषयों में पारंगत होने के बाद ब्रह्मचारी के समावर्तन संस्कार के पूर्व बालों की सफाई की जाती थी तथा उसे स्नान कराकर स्नातक की उपाधि दी जाती थी। केशान्त संस्कार शुभ मुहूर्त में किया जाता था।
समावर्तन इस संस्कार से पूर्व ब्रह्मचारी का केशान्त संस्कार होता था और फिर उसे गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का अधिकारी समझा जाता था।
विवाह स्त्री और पुरुष दोनों के लिये यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है लगभग पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का व्रत का पालन करने के बाद युवक परिणय सूत्र में बंधता था।
अन्त्येष्टि आत्मा में अग्नि का आधान करना ही अग्नि अन्त्येष्टि है। धर्म शास्त्रों की मान्यता है कि मृत शरीर की विधिवत् क्रिया करने से जीव की अतृप्त वासनायें शान्त हो जाती हैं। मनुष्य अपने कर्मो के अनुसार फल भोगता है।
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