षिव और षिवलिंग की पूजा किसी-न-किसी रूप में सम्पूर्ण विष्व में अनादि काल से होती चली आ रही है । इस समाज के कुछ आलोचक ऐसे हैं जो ‘लिंग’ षब्द का अर्थ अष्लीलता से जोड़कर सभ्य और धार्मिक विचार वाले व्यक्तियों को दिग्भ्रमित करने का प्रयास करते है । यह मूर्खतापूर्ण प्रयास है , क्योंकि षिवलिंग का स्वरूप आकार विषेश से रहित है अर्थात निराकार ब्रह्म के उपासक जिस प्रकार हाथ-पैर, षरीररहित ,रूप-रंगहित ब्रह्मा की उपासना करते है । ऐसा ही षिवलिंग का स्वरूप है । जब संसार में कुछ नहीं था सर्वत्र षून्य (0) या अण्डे के आकार का जिसे वेदों-पुराणों की भाशा में ‘अण्ड’ कहा जाता है , वैसा ही स्वरूप षिवलिंग का है जिससे सिद्ध होता है कि षिव और षिवलिंग अनादि काल से है ।यह 0 (षून्य) किसी अंक के दाहिनी ओर होने पर उस अंक के महत्व को दस गुना बढ़ा देता है उसी प्रकार षिव भी दाहिने होकर अर्थात अनुकूल होकर मनुश्य को सुख समृद्धि और मान-सम्मान प्रदान करते है ।
ग्यारह रूद्रों में भगवान षिव की गणना होती है ओर एकादष ( ग्यारह) संख्यात्मक होने के कारण भी यह पर्व हिन्दी ( वर्श) के ग्यारहवें महीने में ही सम्पन्न होता है ।
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