मनुश्य के सामने यह प्रष्न पहली बार नहीं आया कि आत्मा है भी या नहीं । उसकी आस्था ने जो भी राह पकड़ी हो, विष्वास यही रहा कि मृत्यु अंत नहीं है । यह जिद - सी बनी रही है कि उससे आगे भी कुछ है । संभवतः कोई मृत्यु के बाद का जीवन जहां हम किसी रूप में जीवित बने रहें, फिर से इसी दुनिया में जन्म भी लें । इन उम्मीदों को अगर किसी चीज ने जिलाए रखा है ,उसका नाम आत्मा है ।विज्ञान भी पता नहीं कर पाया आत्मा है या नहीं । तो क्या हम मान लें , आत्मा नहीं होती ?या मान लें वह भीतर कही होती है और मृत्यु के समय षरीर छोड़ती है ?अगर परिक्षण सही थे , क्या सचमुच हम अकेले जीव हैं जिनके पास आत्मा होती है ?तो फिर हर जीव में परमात्मा का अषं होने के विष्वास का क्या होगा ?
हे अर्जुन !
नैनं छिन्दन्ति षस्त्राणि ,नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो न षोशयति मारूति ।। आत्मा को न षस्त्र काट सकता है ,न आग जला सकती है । न जल उसे गीला कर सकता है ,न हवा उसे सुखा सकती हैै । अच्छेद्योअ यमदाहोअ यमक्लेद्योआ षोश्य एवच । नित्यः सर्वगतः स्थारूण चलोअयं सनाताः । । क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है,अदाह्य ,अवलेध (अघुलनषील )और अषोश्य है तथा निःसंदेह,नित्य,सर्वव्यापक ,अचल, स्थिर रहने वाला और सनाता है ।
वेद पुराण और धार्मिक मान्यताओं के अनुसार आत्मा को परमात्मा का अंष माना गया है उस ‘परम षक्ति’से अलग हो कर आत्मा धरती पर जलव रूप में प्रगट हुई । जब परमात्मा अविनाषी है तो उसके अषं स्वरूप ‘आत्मा’ के नश्ट हो जाने का कोई प्रष्न ही नहीं बनता?ेअतः आत्मा अमर है । वैज्ञानिक दृश्टि से विष्व का कोई पदार्थ चाहे वह जीवधारी हो या निर्जीव , कभी नश्ट नहीं होता । उसका रूप परिवर्तित हो जाता है ।इस प्रकार यह सिद्ध होता है ,किसी वसतु का पूरा नही ंतो कुछ अंष तो समाप्त ही होता है । प्राचीन ग्रंथों में वर्णित है कि क्रिया करने में षरीर की प्रधानता होती है और फल भोगने में जीवात्मा की । अब इस बात को यों भी समझा जा सकता है कि वाहन के द्वारा किसी मनुश्य की मृत्यु हुई तो उसको छूकर मारने में वाहन की भूमिका रहती है और दण्ड भोगने में ड्राइवर की । ड्राइवर के संयोग से मोटर मारती है और मोटर के सहयोग से ड्राइवर दण्ड भोगता है । स्पश्ट है । की कर्तापन और भोक्तापन दोनों षरीर और जीवात्मा दोनो का सयोग होता है इस बात को और दृढता से परखा जाए तो । अगर किसी ड्राइवर के वाहन के नीचे कोई व्यक्ति आकर मृत्यु को प्राप्त हो तो दण्ड का भागी ड्राइवर है, मगर तर्क है कि ड्राइवर ने तो उसे छुआ तक नहीं फिर उसे दण्ड क्यों ?वास्तव में दण्ड का भागी वह है जो संचालन कर रहा है इसे अब षरीर के संदर्भ में लिया जाए तो षरीर द्वारा किए गए हर कार्य के लिए दोशी जीवात्मा है मगर दण्ड षरीर पाता है। अतः वास्तविक दण्ड का भागीदार जीवात्मा हुई । जीवात्मा क्रिया है ,उसी ने षरीर को गलत कार्य के लिए प्रेरित किया । अब चुकि षरीर वह षक्ति न थी जो जीवात्मा के गलत कार्य रोक पाती इसलिए वह क्रिया करती रहीं और षरीर करता रहा । जो इस गूढ़ रहस्य को जान लेता है, वह जीवात्मा को भी संचालित कर लेता है । यह वह षक्ति अर्थात् अध्यात्म की अनछुई षाखा है जिस पर षोध अभी षेश है ।
PRAVEEN CHOPRA